अनुपमा अनुश्री
जैसे कोस कोस पर पानी
चार कोस पर बानी ,यहां बदलती है
उसी तरह हर दो कदम पर साहित्यकार
और हर चार कदम पर संस्था की भरमार
देख लगता है कि रचनात्मकता
यहां बिखरी पड़ी है।
विचारों का समुद्र लहरा रहा है
और जब ख्याल आती है,
बात असर की , तो बिल्कुल बेअसर
दस प्रतिशत हैं ओरिजिनल
बाकी दूसरों की नकल
कॉपी पेस्ट में ही कुछ
अपनी भी धाक है जमती
तभी तो साहित्यकारों की आज,
है इतनी बड़ी सृष्टि।
इनका है कहना क्वालिटी में दम हो न हो,
क्वांटिटी में हम कम नहीं !
अपने नाम के आगे साहित्यकार
न लगाया ,तो हमारा नाम नहीं
यह और बात कि बरबस क़लम थामे
ऐसे लोगों को सचमुच में कुछ काम नहीं।
सोचने की बात है यहां
साहित्यकारों की फैक्ट्री लगी है,
और विदेश की फैक्ट्री में क्या बनते
पेन नहीं या जन्मते चिंतक, लेखक नहीं!
समाज की हालत जस की तस,
सच्चे साहित्यकार सोचते हैं कि ,
उनके मन के कालेपन को साफ करें या
कि सही रचनाधर्मिता कर कागज काले करें।
व्हाट्सएप, फेसबुक, इंस्टाग्राम,टि्वटर पर
इनकी रचना शीलता की भरमार।
सुनना कम, सुनाना ज्यादा
लिखना कम, चुराना ज्यादा
का मचा है अभिसार।